18 अगस्त यानी आज का दिन भारत के सबसे मशहूर कवि, गीतकार और निर्देशक गुलज़ार साहब का जन्मदिन है। 1936 में जन्मे गुलज़ार साहब आज भी भारतीय साहित्य और सिनेमा में एक समकालीन शख़्सियत बने हुए हैं। छह दशकों से भी ज़्यादा लंबे करियर में उन्होंने अपनी क़लम से वो जादू रचा है, जिसने करोड़ों दिलों को छुआ है। इस ख़ास दिन पर दुनिया भर के उनके चाहने वाले उनके जन्मदिन के साथ-साथ उनकी बेमिसाल जीवन-यात्रा का भी जश्न मना रहे हैं।
शुरुआती जीवन और सिनेमा में आग़ाज़
संपूर्ण सिंह कालरा, जिन्हें पूरी दुनिया आज गुलज़ार के नाम से जानती है, का जन्म पाकिस्तान के दीना नामक छोटे से कस्बे में हुआ था। उनका सफ़र आसान नहीं रहा। मुंबई आकर उन्होंने एक गैराज में काम करके अपनी रोज़ी-रोटी चलाई। मगर साहित्य और कविता से उनका लगाव उन्हें प्रगतिशील लेखक संघ तक ले आया, जहाँ उनकी लेखनी को दिशा मिली।
1960 के दशक में उन्हें पहली बार फ़िल्मी दुनिया में मौक़ा मिला जब महान संगीतकार एस.डी. बर्मन ने उन्हें गीत लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। फ़िल्म बंदिनी (1963) का गीत "मोरा गोरा अंग लै ले" जिसे लता मंगेशकर ने गाया, उनकी पहचान बना। इस गीत के साथ ही एक नई आवाज़ हिंदी फ़िल्मी गीतों की दुनिया में दाख़िल हो गई और सफ़र शुरू हुआ, जिसने गीत लेखन की परिभाषा ही बदल दी।
गुलज़ार की ख़ास शैली
गुलज़ार की लेखनी की सबसे बड़ी पहचान है उसकी सादगी और गहराई। उनके गीत आम बोलचाल की तरह लगते हैं, लेकिन उनमें ऐसे मायने छिपे होते हैं जो सुनने वाले को देर तक सोचने पर मजबूर कर देते हैं। वे ज़िंदगी के छोटे-छोटे पलों—खिड़की पर गिरती बूँदें, एक नज़र का मिलना, बचपन की यादें—को कविता में ढाल देते हैं।
उनके गीतों में कभी नर्म अहसास झलकते हैं, तो कभी उदासी की छाया। मोहब्बत, चाहत और इंसानी रिश्तों को वे जिस बारीकी से शब्दों में ढालते हैं, वह और कहीं देखने को नहीं मिलता। प्रकृति से लिए गए उनके बिंब (metaphors) उनकी शायरी को और भी दिलकश बना देते हैं।
गीतकार के रूप में उनकी छाप
पिछली कई पीढ़ियों के लिए गुलज़ार ने गीत लिखे और हर दौर में अपनी प्रासंगिकता साबित की। चाहे 1980 के दशक का दिल छू लेने वाला "तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी", 1990 का जोशीला "छैयाँ छैयाँ", या फिर स्लमडॉग मिलियनेयर का ऑस्कर विजेता गीत "जय हो", हर गीत में उनकी बहुमुखी प्रतिभा झलकती है।
उन्होंने आर.डी. बर्मन, विशाल भारद्वाज और ए.आर. रहमान जैसे संगीतकारों के साथ मिलकर हिंदी सिनेमा को अनगिनत यादगार धुनें दीं। चाहे ग़ज़ल जैसी नर्म तासीर हो या ऊर्जा से भरे गीत—गुलज़ार हर शैली में अपनी छाप छोड़ते हैं।
फ़िल्मकार के तौर पर एक दृष्टा
ज़्यादातर लोग गुलज़ार को गीतकार के रूप में जानते हैं, लेकिन वे उतने ही कमाल के निर्देशक भी हैं। उनकी फ़िल्में गहरी मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों की पड़ताल करती हैं। आंधी, मौसम, कोशिश और अंगूर जैसी फ़िल्में उनके किस्सागोई के हुनर की मिसाल हैं।
कोशिश (1972) इसका बेहतरीन उदाहरण है, जिसमें संजीव कुमार और जया भादुरी ने एक बधिर-दंपति की भूमिका निभाई। कम संवाद और गहरी भावनाओं से सजी इस फ़िल्म ने दिखाया कि गुलज़ार कहानियों को किस तरह दिलों तक पहुँचाना जानते थे।
बॉलीवुड से परे योगदान
गुलज़ार सिर्फ़ फ़िल्मों तक सीमित नहीं हैं। वे एक मशहूर कवि, लेखक और अनुवादक भी हैं। हिंदी, उर्दू और पंजाबी में लिखे उनके कविता-संग्रह आलोचकों और पाठकों दोनों को भाए हैं। पुखराज, रात पश्मिने की और त्रिवेणी जैसी किताबें उनकी शायरी का हुनर सामने लाती हैं।
उन्होंने टैगोर और कई विदेशी कवियों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद भी किया, जिससे भारतीय पाठकों को विश्व साहित्य तक पहुँच मिली। साहित्य के प्रति उनका प्रेम उन्हें पीढ़ियों और संस्कृतियों के बीच एक सेतु बना देता है।
पुरस्कार और सम्मान
अपने शानदार करियर में गुलज़ार को अनेक सम्मान मिले हैं। उन्हें पद्म भूषण, दादासाहेब फाल्के पुरस्कार, कई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड्स से नवाज़ा गया है। 2009 में उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी पहचान मिली जब उन्होंने गीत “जय हो” के लिए ऑस्कर और ग्रैमी पुरस्कार जीते।
मगर पुरस्कारों से कहीं ज़्यादा उनका असली कमाल यह है कि उनकी लिखी पंक्तियाँ आज भी सुनने वालों के दिल में वही भावनाएँ जगाती हैं—कभी आँखों को नम कर देती हैं, कभी खोई हुई यादें लौटा लाती हैं, तो कभी नए सपने देखने पर मजबूर करती हैं।
आज के दौर में गुलज़ार
अस्सी पार कर लेने के बाद भी गुलज़ार साहब आज भी सक्रिय और रचनात्मक हैं। वे लिखते हैं, नई पीढ़ी के कलाकारों को मार्गदर्शन देते हैं और मुशायरों व साहित्यिक गोष्ठियों में भाग लेते रहते हैं। उनकी आवाज़ आज भी नई-नई पीढ़ियों को प्रेरित करती है।
आज, उनके जन्मदिन पर, प्रशंसक सोशल मीडिया पर उनके गीतों और कविताओं को साझा कर रहे हैं। बहुतों के लिए गुलज़ार सिर्फ़ गीतकार या फ़िल्मकार नहीं, बल्कि एक दोस्त की तरह हैं—जिनकी लिखी पंक्तियाँ अकेलेपन, मोहब्बत और सोच-विचार में साथ देती हैं।
जनता के शायर का जश्न
18 अगस्त को गुलज़ार साहब का जन्मदिन उनके अद्भुत सफ़र को सलाम करने का दिन है। बहुत कम कलाकार ऐसे होते हैं जो पीढ़ियों तक प्रासंगिक बने रहें, और गुलज़ार ने न सिर्फ़ यह कर दिखाया है बल्कि हर दौर में और भी प्यारे और अहम हो गए हैं।
उनका जीवन हमें अल्फ़ाज़ों की ताक़त का एहसास कराता है—ऐसे अल्फ़ाज़ जो घाव भरते हैं, जो ख़ुशियाँ मनाते हैं, और जो भागती-दौड़ती दुनिया में हमें ठहरना सिखाते हैं। इस ख़ास दिन पर हम सिर्फ़ एक शख़्सियत का जन्मदिन नहीं मना रहे, बल्कि उनके कला के उस जादू का भी सम्मान कर रहे हैं जो हमेशा अमर रहेगा।
जन्मदिन मुबारक हो, गुलज़ार साहब!
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